प्रथम खंड
:
12.
सत्याग्रह का जन्म
यहूदियों की उस नाटक-शाला में 11 सितंबर, 1906 को हिंदुस्तानियों की सभा हुई।
ट्रान्सवाल के भिन्न भिन्न शहरों से प्रतिनिधियों को सभा में बुलाया गया।
परंतु मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि जो प्रस्ताव मैंने तैयार किए थे, उनका
पूरा अर्थ तो मैं खुद भी उस समय समझ नहीं पाया था। मैं इस बात का अनुमान भी उस
समय नहीं लगा सका था कि उन प्रस्तावों को पास करने के परिणाम क्या आएँगे।
सभा हुई। नाटक-शाला में पाँव रखने की भी जगह न रही। सब लोगों के चेहरों पर मैं
यह भाव देख सकता था कि कुछ नया काम हमें करना है, कुछ नयी बात होनेवाली है।
ट्रान्सवाल ब्रिटिश इंडियन एसोसियेशन के अध्यक्ष श्री अब्दुल गनी सभा के
सभापति-पद पर आसीन थे। वे ट्रान्सवाल के बहुत ही पुराने हिंदुस्तानी
निवासियों में से एक थे। वे महमद कासम कमरुद्दीन नामक विख्यात पेढ़ी के
साझेदार थे और उसकी जोहानिसबर्ग की शाखा के व्यवस्थापक थे। सभा में जितने
प्रस्ताव पास हुए थे उनमें सच्चा प्रस्ताव तो एक ही था। उसका आशय इस प्रकार
था : 'इस बिल के विरोध में सारे उपाय किए जाने के बावजूद यदि वह धारासभा में
पास हो ही जाए, तो हिंदुस्तानी उसके सामने हार न मानें और हार न मानने के
फलस्वरूप जो जो दुख भोगने पड़ें उन सबको बहादुरी से सहन करें।'
यह प्रस्ताव मैंने सभा को अच्छी तरह समझा दिया। सभा ने शांति से मेरी बात
सुनी। सभा का सारा कामकाज हिंदी में या गुजराती में ही चला, इसलिए किसी को कोई
बात समझ में न आए ऐसा तो हो ही नहीं सकता था। हिंदी न समझनेवाले तमिल और
तेलुगु भाइयों को इन भाषाओं के बोलनेवाले लोगों ने सारी बातें पूरी तरह समझा
दीं। नियमानुसार प्रस्ताव सभा के समक्ष रखा गया। अनेक वक्ताओं ने उसका
समर्थन भी किया। उनमें एक वक्ता सेठ हाजी हबीब थे। वे भी दक्षिण अफ्रीका के
बहुत पुराने और अनुभवी निवासी थे। उनका भाषण बड़ा जोशीला था। आवेश में आकर वे
यहाँ तक बोल गए कि, ''यह प्रस्ताव हमें खुदा को हाजिर मान कर पास करना चाहिए।
हम नामर्द बनकर ऐसे कानून के सामने कभी न झुकें। इसलिए मैं खुदा की कसम खाकर
कहता हूँ कि इस कानून के सामने मैं कभी सिर नहीं झुकाऊँगा। मैं इस सभा में आए
हुए सब लोगों को यह सलाह देता हूँ कि वे भी खुदा को हाजिर मानकर ऐसी कसम
खाएँ।''
इस प्रस्ताव के समर्थन में अन्य लोगों ने...
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